आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्ति गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तिश्रीराम शर्मा आचार्य
|
1 पाठकों को प्रिय 28 पाठक हैं |
प्रस्तुत है गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्ति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री मंत्र की विलक्षण शक्तियाँ
गायत्री-तत्त्वदर्शन
किसी वस्तु के संबंध में विचार करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी कोई
मूर्ति हमारे मन:क्षेत्र में हो। बिना कोई प्रतिमूर्ति बनाये मन के लिए
किसी भी विषय में सोचना असंभव है। मन की प्रक्रिया ही यही है कि पहले वह
किसी वस्तु का आकार निर्धारित कर लेता है, तब उसके बारे में कल्पना शक्ति
काम करती है। समुद्र भले ही किसी ने न देखा हो, पर जब समुद्र के बारे में
कुछ सोच-विचार किया जाएगा, तब एक बड़े जलाशय की प्रतिमूर्ति मन: क्षेत्र
में अवश्य रहेगी। भाषा-विज्ञान का यही आधार है। प्रत्येक शब्द के पीछे
आकृति रहती है। ‘‘कुत्ता’’ शब्द
जानना तभी सार्थक
है, जब ‘कुत्ता’ शब्द उच्चारण करते ही एक प्राणी
विशेष की
आकृति सामने आ जाए। न जानी हुई विदेशी भाषा को हमारे सामने कोई बोले तो
उसके शब्द कान में पड़ते हैं, पर वे शब्द चिड़ियों के चहचहाने की तरह
निरर्थक जान पड़ते हैं। कोई भाव मन में उदय नहीं होता है। कारण यह है कि
शब्द के पीछे रहने वाली आकृति का हमें पता नहीं होता। जब तक आकृति सामने न
आए, तब तक मन के लिए असम्भव है कि उस संबंध में कोई सोच विचार करे।
ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में भी यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक झमेलों में पड़ने से मन को कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा मों कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी। अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी न सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसे तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आकार उस निराकार का भी स्थापित करनी ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी संबंध स्थापित न हो सकेगा।
इस महासत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचिन्त्य बुद्धि से, अलभ्य, वाणी से अतीत, परमात्मा का मन में संबंध स्थापित करने के लिए भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियाँ स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर, दिव्य प्रतिमाएँ गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य आयुध, दिव्य वाहन, दिव्य गुण, स्वभाव एवं शक्तियों का संबंध किया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृंगी, झींगुर को पकड़ कर ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और उसमें इतना तन्मय हो जाती है कि उसकी आकृति बदल जाती है और झींगुक भृंगी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेड़ियों तन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश में उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना आध्यात्मिक रेड़ियो स्थापित करना है, जिनके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वर शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार इष्टदेवों की अनेक आकृतियाँ, साधकों को ध्यान करने के लिए बताई गई हैं। इन देव आकृतियों का स्वतंत्र विज्ञान है। अमुक देवता की अमुक प्रकार की आकृति क्यों रखी गई है ? इसका एक क्रमबद्ध रहस्य है। इसकी चर्चा तो एक स्वतंत्र पुस्तक में करेंगे, जहाँ तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि अमुक प्रयोजन के लिए अमुक ईश्वरीय शक्तियों की अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो आकृति योगी लोगों को ठीक सिद्घ हुई है, वहीं आकृति उस देवता की घोषित कर दी गई है।
जहाँ अन्य प्रयोजनों के लिए अन्य देवाकृतियाँ हैं वहाँ इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिए ‘विराट्रूप’ परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गई है। मनुष्य को सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और वाह्य जीवन चरित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दु:ख, अभाव एव विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरिक और मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो उसकी ईश्वरीय प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिए ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि ईश्वर मेरे चारों ओर छाया है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है- जिसके यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप न कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सहस्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर आँखें गड़ी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा ?
परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा परमात्मा के अनुभव करने की चेतना जागृत हो जाती है। यही विश्व मानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखालाया था उत्तराखण्ड में काकभुशुण्ड जी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान् के मुख में चले गये तो वहाँ सारे ब्रह्माण को देखा। भगवान कृष्ण ने भी इसी प्रकार कई बार विराट् रूप दिखाये। मिट्टी खाने के अपराध से मुँह खुलवाते समय यशोदा को विराट रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन के भगवान् ने युद्ध के समय विराट् रूप दिखाया, जिसका गीता में 11 वें अध्याय में सविस्तार से वर्णन किया गया है।
इस विराट रूप को देखना हर किसी के लिए सम्भव है। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत- उसके अंग-प्रत्यंगों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जागृत होती है और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिल जाता है। अन्धकार के अभाव का नाम है- आनन्द। विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।
ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों के बारे में भी यही बात है। चाहे उन्हें सूक्ष्म माना जाए या स्थूल, निराकार माना जाए या साकार, इन दार्शनिक और वैज्ञानिक झमेलों में पड़ने से मन को कोई प्रयोजन नहीं। उससे यदि इस दिशा मों कोई सोच-विचार का काम लेना है, तो कोई आकृति बनाकर उसके सामने उपस्थित करनी पड़ेगी। अन्यथा वह ईश्वर या उसकी शक्ति के बारे में कुछ भी न सोच सकेगा। जो लोग ईश्वर को निराकार मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश मानते हैं, वे भी ‘निराकार’ का कोई न कोई आकार बनाते हैं। आकाश जैसा निराकार, प्रकाश जैसे तेजोमय, अग्नि जैसा व्यापक, परमाणुओं जैसा अदृश्य। आखिर कोई न कोई आकार उस निराकार का भी स्थापित करनी ही होगा। जब तक आकार की स्थापना न होगी, मन, बुद्धि और चित्त से उसका कुछ भी संबंध स्थापित न हो सकेगा।
इस महासत्य को ध्यान में रखते हुए निराकार, अचिन्त्य बुद्धि से, अलभ्य, वाणी से अतीत, परमात्मा का मन में संबंध स्थापित करने के लिए भारतीय आचार्यों ने ईश्वर की आकृतियाँ स्थापित की हैं। इष्टदेवों के ध्यान की सुन्दर, दिव्य प्रतिमाएँ गढ़ी हैं। उनके साथ दिव्य आयुध, दिव्य वाहन, दिव्य गुण, स्वभाव एवं शक्तियों का संबंध किया है। ऐसी आकृतियों का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से साधक उनके साथ एकीभूत होता है, दूध और पानी की तरह साध्य और साधक का मिलन होता है। भृंगी, झींगुर को पकड़ कर ले जाती है और उसके सामने भिनभिनाती है, झींगुर उस गुंजन को सुनता है और उसमें इतना तन्मय हो जाती है कि उसकी आकृति बदल जाती है और झींगुक भृंगी बन जाता है। दिव्य कर्म स्वभाव वाली देवाकृति का ध्यान करते रहने से साधक में भी उन्हीं दिव्य शक्तियों का आविर्भाव होता है। जैसे रेड़ियों तन्त्र को माध्यम बनाकर सूक्ष्म आकाश में उड़ती फिरने वाली विविध ध्वनियों को सुना जा सकता है, उसी प्रकार ध्यान में देवमूर्ति की कल्पना करना आध्यात्मिक रेड़ियो स्थापित करना है, जिनके माध्यम से सूक्ष्म जगत् में विचरण करने वाली विविध ईश्वर शक्तियों को साधक पकड़ सकता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार इष्टदेवों की अनेक आकृतियाँ, साधकों को ध्यान करने के लिए बताई गई हैं। इन देव आकृतियों का स्वतंत्र विज्ञान है। अमुक देवता की अमुक प्रकार की आकृति क्यों रखी गई है ? इसका एक क्रमबद्ध रहस्य है। इसकी चर्चा तो एक स्वतंत्र पुस्तक में करेंगे, जहाँ तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि अमुक प्रयोजन के लिए अमुक ईश्वरीय शक्तियों की अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जो आकृति योगी लोगों को ठीक सिद्घ हुई है, वहीं आकृति उस देवता की घोषित कर दी गई है।
जहाँ अन्य प्रयोजनों के लिए अन्य देवाकृतियाँ हैं वहाँ इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ईश्वरमय देखने के लिए ‘विराट्रूप’ परमेश्वर की प्रतिमूर्ति विनिर्मित की गई है। मनुष्य को सारी आत्मोन्नति और सुख-शान्ति इस बात पर निर्भर है कि उसका आन्तरिक और वाह्य जीवन चरित्र एवं निष्पाप हो, समस्त प्रकार के क्लेश, दु:ख, अभाव एव विक्षोभों के कारण मनुष्य के शारीरिक और मानसिक पाप हैं। यदि वह इन पापों से बचता जाता है तो फिर और कोई कारण ऐसा नहीं जो उसकी ईश्वरीय प्रदत्त अनन्त सुख-शान्ति में बाधा डाल सके। पापों से बचने के लिए ईश्वरीय भय की आवश्यकता होती है। ईश्वर सर्वत्र व्यापक है इस बात को जानते तो सब हैं, पर अनुभव बहुत कम लोग करते हैं। जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि ईश्वर मेरे चारों ओर छाया है और वह पाप का दण्ड अवश्य देता है- जिसके यह भावना अनुभव में आने लगेगी, वह पाप न कर सकेगा। जिस चोर के चारों ओर सहस्र पुलिस घेरा डाले खड़ी हो और हर तरफ से उस पर आँखें गड़ी हुई हों, वह ऐसी दशा में भला किस प्रकार चोरी करने का साहस करेगा ?
परमात्मा की आकृति चराचरमय ब्रह्माण्ड में देखना ऐसी साधना है, जिसके द्वारा परमात्मा के अनुभव करने की चेतना जागृत हो जाती है। यही विश्व मानव की पूजा है, इसे ही विराट् दर्शन कहते हैं। रामायण में भगवान् राम ने अपने जन्म-काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखालाया था उत्तराखण्ड में काकभुशुण्ड जी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान् के मुख में चले गये तो वहाँ सारे ब्रह्माण को देखा। भगवान कृष्ण ने भी इसी प्रकार कई बार विराट् रूप दिखाये। मिट्टी खाने के अपराध से मुँह खुलवाते समय यशोदा को विराट रूप दिखाया, महाभारत के उद्योग पर्व में दुर्योधन ने भी ऐसा ही रूप देखा। अर्जुन के भगवान् ने युद्ध के समय विराट् रूप दिखाया, जिसका गीता में 11 वें अध्याय में सविस्तार से वर्णन किया गया है।
इस विराट रूप को देखना हर किसी के लिए सम्भव है। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में परमात्मा की विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अन्तर्गत- उसके अंग-प्रत्यंगों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद् बुद्धि जागृत होती है और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुदृढ़ विश्वास होने से मनुष्य पाप से छूट जाता है। फिर उससे पाप कर्म नहीं बन सकते। निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिल जाता है। अन्धकार के अभाव का नाम है- आनन्द। विराट् दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनन्द का उपभोग करता है।
गायत्री मंत्र के परम सामर्थ्यवान् 24 अक्षर
गायत्री महामंत्र में जिन 24 अक्षरों को प्रयोग किया गया है, उसमें
मंत्रशास्त्र की, शब्द विज्ञान की रहस्यमय प्रक्रिया प्रयुक्त हुई है।
अर्थ की अभिलाषा के लिए इनसे से भी सरल और भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग हो
सकता है। 4 वेदों में लगभग 70 मंत्र ऐसे हैं, जो गायत्री मंत्र में दी गई
शिक्षा और प्रेरणा को प्रस्तुत करते हैं, पर उनका महत्त्व गायत्री जैसा
नहीं माना जाता। इस महामंत्र की गरिमा का उसमें प्रयुक्त हुए क्रम का
असाधारण महत्त्व है।
सितार के तारों को अमुक क्रम से बजाने पर उनमें से अमुक राग की झंकृति निकलती है। यदि उँगली फिराने का क्रम बदल दिया जाए, तो दूसरी ध्वनि एवं रागनी निकलने लगेगी। तारों पर हाथ रखने का क्रम दबाव एवं उतार-चढ़ाव का परिवर्तन उस एक सितार यंत्र में से अगणित प्रकार की राग-ध्वनियाँ प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार शब्दों का उच्चारण जिस क्रम एवं श्रृंखला से किया जाता है, उसके अनुसार सूक्ष्म आकाश में, ईश्वर में-विभिन्न प्रकार की ध्वनि लहरियाँ प्रादुर्भूत होती हैं। इनका स्पर्श मानव मस्तिष्क में अलग-अलग से प्रभाव उत्पन्न करता है।
शब्द का सामान्य प्रभाव उनके अर्थों के आधार पर मस्तिष्क ग्रहण करता है, पर सूक्ष्म मस्तिष्क पर शब्दों के अर्थ का नहीं, उनके द्वारा उत्पन्न हुई स्पन्दन स्फुरणाओं का प्रभाव पड़ता है। एक शब्द श्रृंखला के वाक्य को यदि उलट-पुलट कर बोला जाए, तो अर्थ में अंतर न आयेगा। केवल व्याकरण संबंधी अशुद्धि मानी जायेगी; किन्तु इस सामान्य-सी उलट-फुलट से सूक्ष्म आकाश में स्पन्दन क्रम बहुत बदल जायेगा और उसके रहस्यमय प्रभाव में भारी अन्तर रहेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वेदों के निर्माता ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है कि हर मंत्र में उसके अक्षर इस क्रम में सँजोये जाएँ, जिससे वह शक्ति प्रखर स्तर पर प्रादुर्भूत हो सके, जिसके लिए उसकी रचना की गई है। मंत्र विज्ञान का सारा ढाँचा इसी तथ्य पर खड़ा हुआ है।
अर्थ न जानने पर भी मंत्र अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, अधिकांश मंत्रों का अर्थ उनके प्रयोक्ता जानते भी नहीं और न उसकी आवश्यकता समझते हैं। अर्थ न जानने पर भी वे उतना ही प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, जितना कि अर्थ जानने पर। अर्थ का प्रभाव, विचारणा, शिक्षा एवं भावना की दृष्टि से अवश्य है, पर जहाँ प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल में स्पन्दन प्रक्रिया का वैज्ञानिक संबंध है, वहाँ शब्द का ठीक ढंग से उच्चारण करना भी अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर देता है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि गायत्री का या दूसरे मंत्रों के अर्थ नहीं जाना जाए। जानने से शिक्षणात्मक एवं बौद्धिक लाभ भी है, पर यदि अर्थ विदित न हो तो भी शब्द शक्ति अपना वैज्ञानिक प्रयोजन अपने ढंग से करती ही रहेगी, यहाँ पर इतना भर कहा जा रहा है। यदि तथ्य है, जिसके आधार पर यज्ञ, अनुष्ठान एवं कर्मकाण्डों के अवसर पर प्रयुक्त हुए मंत्रों का अर्थ न जानने पर भी उस आयोजन में सम्मिलित नर-नारी लाभान्वित होते हैं। वेद-परायणता यज्ञों में कितने लोग सब मंत्रों का अर्थ समझते हैं ? अर्थ न जानने पर भी आयोजनों में सम्मिलित भरपूर लाभ उठाते हैं।
सितार के तारों को अमुक क्रम से बजाने पर उनमें से अमुक राग की झंकृति निकलती है। यदि उँगली फिराने का क्रम बदल दिया जाए, तो दूसरी ध्वनि एवं रागनी निकलने लगेगी। तारों पर हाथ रखने का क्रम दबाव एवं उतार-चढ़ाव का परिवर्तन उस एक सितार यंत्र में से अगणित प्रकार की राग-ध्वनियाँ प्रस्तुत करता है। ठीक उसी प्रकार शब्दों का उच्चारण जिस क्रम एवं श्रृंखला से किया जाता है, उसके अनुसार सूक्ष्म आकाश में, ईश्वर में-विभिन्न प्रकार की ध्वनि लहरियाँ प्रादुर्भूत होती हैं। इनका स्पर्श मानव मस्तिष्क में अलग-अलग से प्रभाव उत्पन्न करता है।
शब्द का सामान्य प्रभाव उनके अर्थों के आधार पर मस्तिष्क ग्रहण करता है, पर सूक्ष्म मस्तिष्क पर शब्दों के अर्थ का नहीं, उनके द्वारा उत्पन्न हुई स्पन्दन स्फुरणाओं का प्रभाव पड़ता है। एक शब्द श्रृंखला के वाक्य को यदि उलट-पुलट कर बोला जाए, तो अर्थ में अंतर न आयेगा। केवल व्याकरण संबंधी अशुद्धि मानी जायेगी; किन्तु इस सामान्य-सी उलट-फुलट से सूक्ष्म आकाश में स्पन्दन क्रम बहुत बदल जायेगा और उसके रहस्यमय प्रभाव में भारी अन्तर रहेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वेदों के निर्माता ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है कि हर मंत्र में उसके अक्षर इस क्रम में सँजोये जाएँ, जिससे वह शक्ति प्रखर स्तर पर प्रादुर्भूत हो सके, जिसके लिए उसकी रचना की गई है। मंत्र विज्ञान का सारा ढाँचा इसी तथ्य पर खड़ा हुआ है।
अर्थ न जानने पर भी मंत्र अपना प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, अधिकांश मंत्रों का अर्थ उनके प्रयोक्ता जानते भी नहीं और न उसकी आवश्यकता समझते हैं। अर्थ न जानने पर भी वे उतना ही प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, जितना कि अर्थ जानने पर। अर्थ का प्रभाव, विचारणा, शिक्षा एवं भावना की दृष्टि से अवश्य है, पर जहाँ प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल में स्पन्दन प्रक्रिया का वैज्ञानिक संबंध है, वहाँ शब्द का ठीक ढंग से उच्चारण करना भी अभीष्ट प्रयोजन को पूरा कर देता है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि गायत्री का या दूसरे मंत्रों के अर्थ नहीं जाना जाए। जानने से शिक्षणात्मक एवं बौद्धिक लाभ भी है, पर यदि अर्थ विदित न हो तो भी शब्द शक्ति अपना वैज्ञानिक प्रयोजन अपने ढंग से करती ही रहेगी, यहाँ पर इतना भर कहा जा रहा है। यदि तथ्य है, जिसके आधार पर यज्ञ, अनुष्ठान एवं कर्मकाण्डों के अवसर पर प्रयुक्त हुए मंत्रों का अर्थ न जानने पर भी उस आयोजन में सम्मिलित नर-नारी लाभान्वित होते हैं। वेद-परायणता यज्ञों में कितने लोग सब मंत्रों का अर्थ समझते हैं ? अर्थ न जानने पर भी आयोजनों में सम्मिलित भरपूर लाभ उठाते हैं।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book